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आंखों देखा गदर की समीक्षा

आंखों देखा गदर - एक समीक्षा

लेखक - अमृतलाल नागर

अभी अमृतलाल नागर जी द्वारा लिखित पुस्तक 'आंखों देखा गदर' को पढा। इस पुस्तक की समीक्षा में लेखक बताते हैं कि जब सन १८५७ में गदर होने जा रहा था, उस समय दक्षिण भारत के एक विद्वान ब्राह्मण विष्णुभट्ट गोड़से ने उत्तर भारत की यात्रा की थी। यात्रा का उद्देश्य ग्वालियर की रानी द्वारा मथुरा में आयोजित यज्ञ में भाग ले अपार दक्षिणा प्राप्त करना ही था। पर स्थिति ऐसी बन गयी कि उसी समय गदर हो गया। उस स्थिति में वह उत्तर भारत में अपने चाचा के साथ फंस गया। गदर की परिस्थितियों, गदर करने बाले राजाओं, युद्ध का कुछ प्रत्यक्ष देखा और कुछ सुना हुआ विवरण, आम प्रजा के कष्टों का, दोनों ही पक्षों द्वारा मानवता को तिलांजलि देने की घटनाओं का, दयालुता और कठोरताओं का, उस काल की परिपाटियों का, अंधविश्वास की घटनाओं का, जनता की राय का बड़ा मार्मिक चित्रण करते हुए विष्णुभट्ट गोड़से ने मराठी भाषा में ' माझा प्रवास' नामक पुस्तक लिखी। जैसा कि सभी जानते हैं कि यश ईशव्रप्रदत्त वस्तु है। तथा उस ब्राह्मण द्वारा लिखी उस पुस्तक की बहुत कम बिक्री हुई। संयोग से लेखक की नजर में वह पुस्तक आयी। लेखक को इस पुस्तक में कुछ अलग विशेषता नजर आयीं तथा फिर लेखक ने प्रकाशक ने विधिवत अनुमति लेकर माझा प्रवास का अनुवाद किया। वही अनुवाद आंखों देखा गदर के नाम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है।

सबसे पहले गदर के मूल कारण जो कि लेखक ने बताया है - उस पर चिंतन आवश्यक है। एक ब्राह्मण जाति के सिपाही से एक शूद्र ने पानी पीने के लिये लोटा मांगा। उस समय की ऊंच नीच की व्यवस्था के कारण ब्राह्मण ने शूद्र को लोटा नहीं दिया। उसी प्रसंग में ब्राह्मण और शूद्र के मध्य वाद विवाद की स्थिति में शूद्र ने खुलासा किया कि शुद्धता का दंभ भरने बाले ऊंची जाति के सिपाही पहले ही बरतानिया सरकार द्वारा अशुद्ध किये जा चुके हैं। तथा कारतूस पर चर्बी लगाने का काम शूद्रों द्वारा होता है। इसलिये उन्हें पता है कि वह चर्बी गाय और सूअर की होती है।

इसी विवाद से फौज के हिंदुस्तानी सिपाहियों में हंगामा मच गया। हंगामा करने बाले ज्यादातर सिपाही ब्राह्मण थे। अंग्रेजी सरकार ने इन खबरों को झूठ बताया। पर ब्राह्मण धर्म के उपासक उन सिपाहियों ने फिर कारतूसों का प्रयोग नहीं किया।

एक अन्य कारण जो कि गोड़से को सुनने में आया, वह था - अंग्रेजी अधिकारियों द्वारा कलकत्ता में की गयी एक मीटिंग जिसमें कुछ राजाओं को बुलाया गया तथा नाना समेत झांसी की रानी को नहीं बुलाया गया। उस मीटिंग में नये कानूनों की जानकारी दी गयी जिन्हें सभी राजाओं को अपने राज्यों में स्वीकार कराना था। वैसे तो वे कानून समाज सुधार के लिये थे। पर उन्हें समाज सुधार न मान धार्मिक हस्तक्षेप माना गया। इस कारण ऊंची जाति की जनता चाहने लगी कि भारत से अंग्रेजी हुकूमत समाप्त हो जाये।

उस समय पेशवा नाना साहब थे। वह भी धार्मिक व्यवधान से दुखी थे। पर अंग्रेजी हुकूमत से टकराने का साहस उनमें नहीं था। पर एक दिन ऐसी घटना घटित हुई कि वह एकदम गदर में टूट पड़े।

हुआ यह कि वह अपने राज्य बिठूर में गंगा नदी में स्थान कर बाहर निकले थे कि कानपुर से एक घुड़सवार आया। उसने नाना की हर तरह से प्रशंसा की। बताया कि अंग्रेजी सेना के हिंदुस्तानी सिपाही पहले ही अंग्रेजी हुकूमत से नाराज हैं। मुसलमानों ने दिल्ली के राजा को अपना नेता मान लिया है। इस तरह फिर से मुसलमानी राज्य कायम हो सकता है। हम हिंदुओं के नेता आप ही हो सकते हैं।

इस तरह प्रोत्साहन से नाना एकाएक अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ समर में टूट पड़े। कानपुर की अंग्रेजी सेना को अनुमान ही नहीं था। नाना ने कानपुर पर आक्रमण किया। अंग्रेजी सेना के हिंदुस्तानी सिपाही भी नाना के साथ आ गये। अंग्रेजों को भागना पड़ा।

बहुत सी सुनी सुनाई बातों का उल्लेख है कि किस तरह गदर के सैनिकों ने नाना के आदेशों की अवहेलना की। अपनी जान बचाकर जाती अंग्रेजी मेमों से भरी नाव पर गोले फेंके। उस हमले में कितनी ही औरतें मारी गयीं और कोई आठ गिरफ्तार कर जेल में डाल दी गयीं।

उसके बाद वह घटना घटित हुई जिसे गदर के इतिहास का काला पन्ना कहा जाता है। एक अंग्रेजी मैम ने मेहतरानी को सोने के सिक्के देकर पत्र लखनऊ भेजने के लिये तैयार कर लिया। दुर्भाग्य की बात कि वह मेहतरानी पकड़ी गयी। गदर के सिपाहियों द्वारा उसे कठोर यातनाएं दी गयीं (वैसे भी उस काल की मानसिकता में मेहतरानी को इंसान भी नहीं माना जाता था) जो विष्णुभट्ट को सुनने में आया, उसके अनुसार मेहतरानी को कोड़े मारने की घटना में नाना की सहमति थी। पर फिर नाना द्वारा युद्ध धर्म के आदर्श समझाने के बाद भी गदर के सैनिकों ने वंदी अंग्रेजी महिलाओं की क्रूर हत्या कर दी।

उसके बाद अंग्रेजी सेना से युद्ध में नाना को हारकर कानपुर छोड़ बिठूर भागना पड़ा। अंग्रेजी सेना ने अपनी महिलाओं की मृत्यु का बदला हिंदुस्तानी महिलाओं की हत्या कर लिया।

इसी तरह बिठूर से भी नाना को हटना पड़ा। जनता पर अंग्रेजी सेना ने बड़े अत्याचार किये।

इस पुस्तक का मुख्य वर्णन झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है। गदर का आंखों देखा ज्यादातर हाल भी झांसी का ही है।

हुआ यह कि रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधर जो कि एक निर्दयी पुरुष थे, उनकी पहली पत्नी की मृत्यु हो गयी। अब कोई ब्राह्मण उन्हें अपनी बेटी देने को तैयार नहीं था। ऐसे में उन्हें छबीली नामक लड़की के बारे में पता चला। छबीली की आयु ज्यादा हो चुकी थी। वह बचपन से ही पुरुषों की तरह रहती आयी थी और युवावस्था में भी ज्यादातर पुरुषों की तरह रहती थी। गंगाधर राव ने छबीली के पिता को धन, झांसी में अलग शानदार मकान, नौकर चाकर आदि देकर छबीली से शादी की। शादी के बाद छबीली का नाम लक्ष्मीबाई हो गया।

इस प्रसंग में तथा एक अन्य प्रसंग में भी उस काल की एक परिपाटी का पता चलता है कि उन दिनों विवाह करने के लिये वर पक्ष, कन्या पक्ष को धन देता था तथा कन्या पक्ष की शर्त मानता था। वर्तमान की दहेज व्यवस्था से यह एकदम उलट व्यवस्था थी।

गंगाधर राव अपनी दूसरी पत्नी के प्रति भी कठोर रहे। जब तक गंगाधर राव जीवित थे, लक्ष्मीबाई को अपनी इच्छा से राजमहल में भी घूमने की आजादी नहीं थी। दुर्भाग्य या सौभाग्य की बात कि गंगाधर की निःसंतान मृत्यु हो गयी।

लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र गोद लिया। अब वह राज्य चलाने लगीं। पति के अति नियंत्रण का परिणाम था कि पति की मृत्यु के बाद वह अति स्वतंत्रता पूर्ण जीवन जीने लगीं।

लक्ष्मीबाई का वर्णन करते हुए गोडसे लिखते हैं कि वह एक अति साहसी तथा उदार महिला थी। कोई महिला इस तरह साहसी हो सकती है, ऐसा अनुमान करना भी कठिन है।

बाई हर सुबह मर्दाना कपड़े पहन राजमहल से बाहर निकलती थीं तथा दो घंटे कठोर कसरत करती थीं।

दिन में खाना खाकर वह कभी एक दो घंटे आराम कर लेती थीं। पर शाम को खुद दरवार में बैठती थीं। दरवार में वह कभी तो सफेद साड़ी पहनकर आती थीं तथा कभी मर्दाना कपड़े कुरता, पाजामी और पगड़ी पहन आती थीं। हर मुकदमे की गहराई तक वह जाती थीं। जनता को उनके न्याय पर विश्वास था।

अपराधियों को दंड देते समय वह अति कठोर होती थीं। कई बार तो अपराधियों को छड़ी या दंडी से खुद ही पिटाई लगाती थीं।

एक बार चोरों ने झांसी से कुछ दूर एक गांव में आतंक मचा रखा था। रानी ने उन लुटेरों को खुद पकड़ा तथा उन्हें इतना कठोर दंड दिया कि फिर कहीं लूट की घटना सुनाई नहीं दी।

शाम के समय लक्ष्मीबाई माता लक्ष्मी के मंदिर जाती थीं। उस समय ज्यादातर वह स्त्रियों के कपड़े पहन पालकी से जाती थीं तथा दक्षिण भारत से खरीदकर लायी गयीं सुंदर लड़कियां उनकी पालकी के साथ भागती हुई चलती थीं। पर कभी कभी वह घोड़े पर बैठकर भी मंदिर जाती थीं। उस समय बाई के कपड़े मर्दाना होते थे।

मुख्य आंखों देखा वर्णन झांसी की लड़ाई का ही है। जबकि विष्णुभट्ट झांसी पहुंच गये थे। रानी अपनी विजय की कामना से हर रोज यज्ञ तथा पूजा कराती थीं। विष्णुभट्ट को भी दक्षिणा पाने का मौका मिल रहा था।

यों दक्षिण भारतीय ब्राह्मण खुद दक्षिणा के लिये पूजा करा रहा था, उसके बाद भी व्यंग्य रूप में वह लिखता है कि तत्कालीन राजाओं की अनुष्ठानों पर ज्यादा मान्यता थी। उनका विश्वास था कि युद्ध जिताने में अनुष्ठानों का बड़ा हाथ होता है।

रानी के नैत्रत्व में अठारह दिनों तक अंग्रेजी सेना (जिसमें बहुत से सैनिक मद्रासी और बहुत से सिंधे थे) से अठारह दिनों के युद्ध का वर्णन है। यह युद्ध तलवार आदि से नहीं लड़ा गया था अपितु तोपों से ही ज्यादा लड़ा गया था। रानी हर मोर्चे पर नजर रखती थीं। रानी की तोपों ने अंग्रेजी सेना का बड़ा नुकसान किया। पर अंग्रेजी तोपों से भी बहुत नुकसान हो रहा था। सबसे बड़ी दिक्कत थी कि अंग्रेजी तोपों से बहुत नुकसान आम लोगों का हो रहा था।

उसी समय तान्या तोपे ने दूसरी तरफ से अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया। इससे रानी के सैनिकों को बड़ी हिम्मत बंधी। पर वह हिम्मत जल्दी टूट गयी जबकि पाया कि तान्या तोपे का साथ देने बाले सैनिक बुजदिल थे। तथा अंग्रेजी तोपों की बरसात को देखते ही अपनी तोपें छोड़ भाग गये। फिर तान्या को भी युद्ध से हटना पड़ा।

इन्हीं कारणों से रानी की शक्ति कमजोर पड़ने लगी। अठारह दिनों बाद अंग्रेजी सेना नगर में घुस गयी। रानी की शक्ति कम होने के बाद भी सेना का नगर में घुस पाना किसी विश्वासघाती के कारण ही संभव हुआ था। रानी छोड़े पर सवार हो उसी सेना के मध्य से नगर से निकल गयी। यह बड़े आश्चर्य की बात थी। अंग्रेजी अफसरों ने भी रानी की बहादुरी की तारीफ की।

उसके बाद अंग्रेजी सेना द्वारा किये गये लूटपाट का वर्णन है। जनता को एकदम भिखमंगा कर दिया गया। उनके रुपया पैसा ही नहीं, अपितु बर्तन और कपड़े भी लूटे गये। गदर में रानी का साथ देने बालों को तथा रानी के पिता को भी फांसी दे दी गयी।

ब्राहमण की जान तो बच गयी पर जो कमाया था, सारा लुट गया।

उसके बाद एक बार फिर से ब्राह्मण की मुलाकात रानी से हुई जबकि रानी कालपी जा रही थी। रानी ने ब्राह्मण को पहचान लिया था। उस स्थिति में भी ब्राह्मण को अपनी क्षमता के अनुसार दक्षिणा देकर विदा किया।

रानी के वीरगति का सुना हुआ वर्णन भी दिया गया है। उल्लेख यह है कि रानी के विश्वासपात्र योद्धा पहले ही युद्ध में मारे गये थे। तथा आपत्ति काल में उन्होंने जिनको अपनी सेना में रखा, वे भरोसे के नहीं थे। युद्ध की विद्याओं में तो शून्य थे ही साथ ही साथ कलुषित वृत्ति के थे। उनका उद्देश्य केवल डकैती करना था। अंग्रेजी सेना से युद्ध करने के स्थान पर वे प्रजा में ही लूटपाट कर रहे थे।

इसी तरह पेशवा द्वारा ग्वालियर के सिंधे राजा को पराजित कर नगर पर कब्जा कर नगर में लूटपाट का वर्णन है। राजमहल से हर सामान लूटकर उसकी नीलामी कर दी। पर कुछ ही दिनों बाद सिंधे ने अंग्रेजी सेना के सहयोग से ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। फिर जिन्होंने लूट का सामान खरीदा था, उनकी बड़ी दुर्गति हुई।

इस तरह ब्राह्मण देव ने बहुत कमाया तथा हर बार लुटबा दिया। लूटने बालों में सभी तरह के लोग थे। अंत में कुछ ब्राह्मणों के साथ वापस दक्षिण जा रहे थे तब साथ जा रहे ब्राह्मण भी उन्हें लूटकर चलते बने। उत्तर भारत से वह अपने घर जो लेकर पहुंचे - वह था गंगाजल एवं कुछ गहन चिंतन। जैसे कि अच्छे उद्देश्य में साथ देने बालों की भीड़ में बहुत से लोग केवल अपना मतलब हल करने बाले ही होते हैं। उत्तेजना से भीड़ एकत्रित हो सकती है पर उत्तेजित भीड़ के कोई आदर्श नहीं होते। आम जनता हर तरह से परेशान रहती है। और भी बहुत सी बातें ।

इन वर्णनों में से बहुत से वर्णन गलत भी हो सकते हैं। तथा कुछ सच्ची बातों का उल्लेख भी नहीं है - जैसे कि नाना साहब की पुत्री का अंगेजों द्वारा जिंदा जलाकर मार देना। पर अंग्रेजी औरतों पर अत्याचार की गाथा एकदम सत्य है। क्योंकि इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का वर्णन प्रकारांतर से कल्याण के नारी अंक में है। कल्याण के नारी अंक में लिखा है कि नाना साहब के सैनिकों द्वारा अंग्रेजों की स्त्रियों को जब मारा गया था, उसी समय एक विद्वान ब्राह्मण जिसपर नाना को अपार श्रद्धा थी, ने नाना के सामने ही भविष्यवाणी की थी कि भारतीय आदर्शों की तिलांजलि देकर जिस तरह से महिलाओं पर अत्याचार किया गया है, उसके बाद इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस लड़ाई में भारतीयों की जीत संभव ही नहीं है। पेशवा के सैनिकों ने वीर शिवाजी द्वारा स्थापित परंपरा जबकि वैरी पक्ष की महिलाओं को ससम्मान उनके पतियों के पास भेजना चाहिये, को भी भुला दिया है।

एक पुस्तक की भिन्न भिन्न तरीके से समीक्षा संभव है। उपरोक्त मेरा आकलन था जिसमें भूल होने की पूरी संभावना रहती है।

दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'

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